Go First Airlines Crisis: एक के बाद एक क्यों डूब रही हैं विमान कंपनियां, 11 साल में तीसरी एयरलाइन हुई दिवालिया
Go First Airlines Crisis: गो फर्स्ट द्वारा दिवालिया घोषित करने के लिए आवेदन देने के बाद एक बार फिर से देश में बुरे दौर से गुजर रहे एविएशन सेक्टर पर सवाल उठने लगे हैं। आखिर भारत में एक के बाद क्यों दिवालियां हो रही हैं कंपनियां और क्या हैं इनके कारण।
किंगफिशर एयरलाइंस
भगोड़े कारोबारी विजय माल्या ने साल 2003 में किंगफिशर एयरलाइंस की स्थापना की थी और साल 2005 में सिंगल क्लास इकोनॉमी के रूप में इस एयरलाइन ने अपना परिचालन शुरू किया था।
शुरुआती कुछ सालों में किंगफिशर एयरलाइंस ने मोटा मुनाफा कमाया और कर्ज में डूबी एयर डेक्कन को साल 2008 में खरीद लिया। आकंड़ों की मानें तो साल 2011 में घरेलू उड़ानों के मामलों में किंगफिशर की दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी थी।
जहां एक तरफ किंगफिशर एयरलाइन नई बुलंदियों को छू रहा था, वहीं उसके विनाश की शुरुआत भी एयर डेक्कन की खरीद से ही हो चुकी थी। किंगफिशर ने 2008 में एयर डेक्कन एयरलाइन को तो खरीद लिया
लेकिन उसके बाद किंगफिशर पर कर्ज का बोझ साल दर साल बढ़ता गया और एक ऐसा समय आया, जब कंपनी ने अपने संपत्ति का आधा तो कर्ज ले लिया। दूसरी ओर, उस वक्त कच्चे तेल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी ने एयरलाइन को घुटने के बल गिरा दिया।
किंगफिशर का कर्ज इतना बढ़ गया कि साल 2012 में एयरलाइन का लाइसेंस रद्द हो गया और सभी परिचालन बंद कर दिए गए। इसके बाद साल 2014 के अंत में United Breweries Holdings Limited ,जो एयरलाइंस की गारंटर थी, उसने एयरलाइन को डिफॉल्टर घोषित कर दिया था।
जेट एयरवेज
1992 में जेट एयरवेज की शुरुआत हुई थी। एक साल के बाद, यानी 1993 तक एयरलाइन ने दो विमान, बोइंग 737 और बोइंग 300 के साथ परिचालन शुरू किया और कंपनी ने तगड़ा मुनाफा कमाते हुए भारतीय एयरलाइन में सबसे उंची उड़ान भरी।
साल 2006 में जेट एयरवेज ने एयर सहारा (Air Sahara) को करीब 2000 करोड़ रुपये में खरीद कर अपने बेड़े में 27 नए विमान शामिल कर लिए। इसके बाद जेट एयरवेज ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और घरेलू उड़ानों के साथ-साथ कंपनी ने अंतरराष्ट्रीय उड़ानें भी शुरू कर दीं।
अंतरराष्ट्रीय उड़ान शुरू करने का फैसला गलत साबित हुआ और कंपनी की वित्तीय परेशानियां शुरू हो गईं। साथ ही साथ घरेलू उड़ानों के लिए मार्केट में इंडिगो एयरलाइन ने अपनी पकड़ मजबूत करने लगी और नतीजतन 2012 के मध्य तक इंडिगो ने घरेलू बाजार में जेट का मार्केट शेयर तोड़ दिया।
धीरे-धीरे और साल दर साल जेट एयरवेज का घाटा बढ़ता चला गया और वित्तीय परेशानियां और बढ़ती चली गईं।दिसंबर 2018 तक कंपनी के पास 124 विमान थे, जिसमें से सिर्फ 4 से 5 विमान ही उड़ रहे थे और बाकी जमीन पर नजर आ रहे थे। भारी घाटे और कर्ज के कारण जेट एयरवेज ने अप्रैल 2019 में अपना सारा परिचालन बंद कर खुद को दिवालिया घोषित कर दिया। इसके बंद होते ही करीब 17 हजार कर्मचारियों की नौकरियां चली गईं।
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गो फर्स्ट
गो फर्स्ट एयरलाइन (जो पहले गो एयर के नाम से जाना जाता था) इस वक्त दिवालिया होने के मुहाने पर खड़ी है। कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित करने के लिए एनसीएलटी के पास आवेदन भी दे दिया है। इसका मतलब कंपनी अभी आधिकारिक तौर पर दिवालिया घोषित नहीं हुई है।
गो फर्स्ट ने साल 2005 में एविएशन सेक्टर में आई थी। पिछले तीन सालों में इसके प्रमोटरों ने 3,200 करोड़ रुपये का बड़ा निवेश किया था और पिछले दो सालों में 2,400 करोड़ रुपये का निवेश किया था। वर्तमान में गो फर्स्ट Cash & Carry मोड पर चल रही है। आसान भाषा में कहें तो कंपनी को हर दिन संचालित होने वाली फ्लाइट के लिए पेमेंट करना होता है।
कंपनी ने जानकारी देते हुए बताया कि कंपनी पर कुल 6,527 करोड़ रुपये का कर्ज हो चुका है। फिलहाल, कंपनी की हालत ये हो चुकी है कि गो फर्स्ट अपने ऑपरेशनल क्रेडिटर्स की पेमेंट भी नहीं कर पाई है। कंपनी को एविएशन फ्यूल का भुगतान करना था, जो कंपनी नहीं कर सकी, जिसके चलते कंपनी को सभी उड़ानों को रद्द करना पड़ा है।
गो फर्स्ट ने अमेरिकी कंपनी प्रैट एंड व्हिटनी के दोषपूर्ण इंजनों को अपने अपनी परेशानियों को जिम्मेदार ठहराया है, जिसके कारण इसके आधे प्लेन की ग्राउंडिंग हुई थी। हालांकि, प्रैट एंड व्हिटनी ने एक बयान जारी कर कहा है कि गो फर्स्ट का बकाये का भुगतान न करने का एक लंबा इतिहास रहा है।
क्यों बंद हो रही हैं भारतीय विमान कंपनियां
गो फर्स्ट भारत में बंद होने वाली पहली निजी एयरलाइन नहीं है। भारतीय उड्डयन क्षेत्र में पिछले कई सालों में एयरलाइनें या तो कारोबार से बाहर हो जाती हैं या भारी नुकसान उठाने के बाद किसी दूसरी विमान कंपनी द्वारा खरीदी जाती हैं।
लंबे समय तक एयर इंडिया के वित्त अधिकारी रहे राज राजेश्वर रेड्डी कहते हैं कि एयरलाइंस दिवालिया होने के मामले में आप भारत को विमान कंपनियों का कब्रिस्तान कह सकते हैं। 1990 के दशक में ईस्टवेस्ट और दमानिया से लेकर पिछले दशक में एमडीएलआर, पैरामाउंट, किंगफिशर, एयर कोस्टा और जेट तक, डूब चुकी भारतीय एयरलाइनों की सूची लंबी है।
भारत में एयरलाइंस को सामान्य कुप्रबंधन के अलावा कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। हमने कुछ एक्सपर्ट से ये जानने की कोशिश की है कि भारत में एयरलाइन्स इस तरह संकट में क्यों हैं।
डॉलर का उतार-चढ़ाव
डॉलर के दाम में उछाल भी एयरलाइन के लिए लागत बढ़ाता है। जेट ईंधन, लीज भुगतान, रखरखाव, ओवरहाल लागत और विमान की खरीद, आमतौर पर ये सभी सौदे डॉलर में होते हैं।
जब रुपये में डॉलर के मुकाबले गिरावट आती है, तो संचालन की दैनिक लागत कम हो जाती है, इससे लाभ और नकदी का असंतुलन बढ़ता है। यह विदेशी टिकटों को और अधिक महंगा बना देता है। ऐसे में मांग घटने के साथ मार्जिन कम हो जाता है।
ईंधन की भूमिका
ईंधन विमानन में परिचालन लागत का एक बड़ा हिस्सा एयर टर्बाइन ईंधन (एटीएफ) है। इसमें आमतौर पर आधी लागत शामिल होती है, लेकिन कई वजहों से यह तेजी से बढ़ी है। पिछले कुछ वर्षों में एटीएफ की कीमत में लगभग 60% से 70% की अभूतपूर्व वृद्धि हुई है।
अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतें एक एयरलाइन के लिए बेहद भारी पड़ती हैं। एटीएफ में उतार-चढ़ाव का मतलब है व्यापार में हमेशा बनी रहने वाली अस्थिरता।
जेट एयरवेज में ईंधन आपूर्ति का काम कर चुके कीर्ति सगठिया बताते हैं कि एटीएफ की कीमतों में बेतहाशा उछाल एयरलाइन व्यवसाय को बर्बाद कर सकती है। जब बकाया बढ़ता है तो तेल कंपनियां एयरलाइंस को कैश-एंड-कैरी के आधार पर रखती हैं, जिससे स्थिति और खराब हो जाती है।
भारत में एटीएफ पर भारी कर लगाया जाता है। राज्य एटीएफ पर मूल्य वर्धित कर (वैट) लगाते हैं जो 30% तक होता है। हालांकि, बड़ी संख्या में राज्यों ने वैट घटाया है। एटीएफ को जीएसटी के तहत लाने की भी मांग की जा रही है, ताकि कीमत में एकरूपता और अधिक स्थिरता हो।
परिचालन लागत
विमान उद्योग की रनिंग कॉस्ट बहुत ज्यादा बैठती है। टाटा एयर इंडिया के साथ लॉजिस्टिक डिपार्टमेंट में अतिरिक्त निदेशक के रूप में काम करने वाले प्रतीक भट्ट कहते हैं
कि नए विमानों को खरीदने की प्रक्रिया से लेकर उनके रख-रखाव तक कई चरण होते हैं। नए विमानों का ऑर्डर सालों पहले दिया जाता है, क्योंकि उन्हें बनाने में बहुत समय लगता है।
मांग का असंतुलन
मांग में उतार-चढ़ाव पूरी दुनिया में विमानन व्यवसाय में एक बड़ी चुनौती है। उतार-चढ़ाव में बदलाव एयरलाइन व्यवसाय के साथ तबाही लेकर आता है, क्योंकि हर सीट के खाली होने से नुकसान होता है। एक तरफ घटती मांग और दूसरी तरफ उच्च लागत प्रमुख चिंता बन जाती है। जब मांग कम होती है, तब भी एयरलाइंस को सभी कर्मचारियों को वेतन देना पड़ता है, विशेष रूप से पायलटों को अत्यधिक भुगतान किया जाता है।
मांग के बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। अगर विमानों की डिलीवरी वर्षों बाद होती है, तो कम मांग होने पर भी एयरलाइन को भुगतान करना होगा और वह अपने सभी विमानों का उपयोग नहीं कर पाती है।
विमान जब ग्राउंडेड होते हैं, तो भी उन पर अधिक खर्च होता है, क्योंकि उन्हें नियमित रखरखाव की आवश्यकता होती है और अक्सर उन्हें इसके लिए विदेश भेजा जाता है।
यदि मांग बढ़ने पर किसी एयरलाइन के पास पर्याप्त विमान नहीं होते हैं, तो उच्च लागत पर उन्हें पट्टे पर देना पड़ता है। हवाई अड्डे की लागत भी अधिक होती है, विशेष रूप से कम लागत वाली एयरलाइनों के लिए, क्योंकि भारत में घरेलू एयरलाइनों के लिए बहुत अधिक सस्ते हवाई अड्डे नहीं हैं। अक्सर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय उड़ानें एक ही हवाई अड्डे से संचालित होती हैं।
सरकारी नीतियां
विमानन एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे सरकार द्वारा विनियमित किया जाता है। चूंकि भारत सरकार खुद एक अंतरराष्ट्रीय और घरेलू वाहक, एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस का संचालन करती थी, इसलिए इसकी नीतियों को अक्सर उन एयरलाइनों के लिए अधिक अनुकूल माना जाता था।
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इससे निजी एयरलाइंस के लिए प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता था। सरकार पर अक्सर निजी खिलाड़ियों द्वारा संरक्षणवाद का आरोप लगाया जाता रहा है। किंगफिशर में फ्लाइट ऑफिसर के रूप में काम कर चुकीं रजनी अधिकारी कहती हैं
कि सरकारी एयरलाइंस पर बाजार की ताकतों कोई दबाव नहीं था, जबकि निजी एयरलाइंस के लिए कहानी अलग है। इसके अलावा सरकार ही हवाई किराए को तय करती है और अक्सर एयरलाइन को एक निश्चित मूल्य पर टिकट बेचने के लिए बाध्य किया जाता है। इससे विमान कंपनियों को नुकसान होता है।