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अफ़ग़ानिस्तान में किस हाल में रह रहे हैं हिंदू और सिख, जानकह हो जाऐंगे हैरान

In what condition are Hindus and Sikhs living in Afghanistan, you will be shocked to know
 
अफ़ग़ानिस्तान में किस हाल में रह रहे हैं हिंदू और सिख, जानकह हो जाऐंगे हैरान

Haryana Update. बीती 15 अगस्त को Afganistan में Taliban को सत्ता में आए एक साल पूरा हो गया. ऐसे में राजधानी Kabul सहित दूसरे इलाकों में किसी बड़े चरमपंथी धमाके या हमले को लेकर तनाव का माहौल बना हुआ है.


लड़ाई ख़त्म हो गई लेकिन ऐसा लगता है कि इस देश में शांति नहीं है.

इसी माहौल में हम लोग center of kabul में स्थित Asamai Temple पहूंचे.

लोहे की मोटी चादरों से बने दरवाज़े को जब हमने खटखटाया तो छोटी सी जालीदार खिड़की के पीछे से एक चेहरे ने संशय भरे अंदाज़ में हमारा परिचय पूछा.

ये प्राचीन Asamai Temple के पुजारी और अफ़गानिस्तान में गिने-चुने बचे हिंदुओं में से एक Harjit Singh Chopra थे.

इस मंदिर में मातारानी की पूजा होती है, यहां अखंड ज्योत जलती है. यहां शिवालय है और भोलेनाथ की पूजा भी होती है. साथ ही यहां श्रीमदभागवत और रामायण भी है.

गार्ड के अलावा मंदिर की इस बड़े से अहाते में हरजीत सिंह अपनी पत्नी बिंदिया कौर के साथ रहते हैं.

तालिबान के अफ़गानिस्तान में सुरक्षा कारणों से दोनों के परिवार भारत चले गए हैं, लेकिन हरजीत और बिंदिया यहीं रह गए.


चरमपंथी हमलों का डर
हमलों के डर से मंदिर में पूजा भी बहुत चुपचाप तरीक़े से होती है, इसे रिकॉर्ड करने की इजाज़त नहीं है, ताकि पूजा के बारे में पता चलने पर कोई चरमपंथी हमला ना हो जाए.

एक वक्त अफ़गानिस्तान के खोस्त इलाके में मसाले का काम करने वाले हरजीत कहते हैं, "बैठे हैं हम माता रानी के चरणों में. उनकी सेवा कर रहे हैं. ये नहीं कि हम डर जाएं. हम माता मंदिर नहीं छोड़ेंगे."

वो कहते हैं, "(अफ़ग़ानिस्तान में) 10-11 हिंदू बचे हैं. गिनती के सात-आठ घर. एक मेरा घर है. एक राजाराम हैं, गज़नी में. एक दो घर कार्ती परवान में हैं. एक दो घर शेर बाज़ार में हैं. वो ग़रीब लोग हैं. ऐसे लोग भी हैं जो पासपोर्ट क्या है जानते भी नहीं. लोग पढ़े लिखे नहीं हैं. शुरू से यहां बड़े हो गए हैं."

"पहले एक बम धमाका जलालाबाद में हुआ था. उससे तक़रीबन 600-700 बंदे इंडिया चले गए. जब शेर बाज़ार (काबुल में) में बम ब्लास्ट हो गया तो उसमें 30 घर तबाह हो गए थे. उससे 200 लोग फिर इंडिया चले गए.

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"जब तालिबान आ गए तो डर से लोग इंडिया चले गए. जब कार्ती परवान में हादसा हो गया तो 50-60 इंडिया चले गए. हम तो सेवा के लिए रुके हैं यहां. मंदिर के लिए. किसी हिंदू या सिख का दिल यहां नहीं लग रहा है सभी इंडिया जाना चाहते हैं."

साल 2018 में जलालाबाद में एक आत्मघाती हमले में और साल 2020 में काबुल में गुरुद्वारे पर चरमपंथी हमले में कई सिख मारे गए थे. इस साल जून में काबुल के कार्ती परवान गुरुद्वारे में हमले में एक सिख की मौत हो गई.

बिंदिया कौर का सारा परिवार भारत में है. यहां उनका पूरा दिन घर का काम और मंदिर की सेवा करने में बीतता है.

वो कहती हैं, "पहले मंदिर में 20 परिवार यहां रहते थे. डर के मारे कुछ कुछ ऐसे जाने लगे. फिर पांच परिवार रह गए यहां. फिर वो भी डर गए वो भी चले गए. फिर सारे आहिस्ता आहिस्ता छोड़कर चले गए. पहले बहुत बिगड़ा था. धमाके हो रहे थे. पिछले साल तालिबान लोग आ गए, फिर ये लोग भी चले गए. और हम अकेले रह गए."

उनके घर के बगले के खाली कमरे और दरवाज़ों पर लटके ताले गुज़रे वक्त की कहानी बयान कर रहे थे.

हरजीत सिंह
ग़ायब होते हिंदू और सिख
मंदिर की जगह से थोड़ी दूर पर है कार्ती परवान इलाका. काबुल के हर इलाके की तरह यहां भी हर जगह चेक पोस्ट हैं और सड़कों पर बंदूक लिए तालिबान नज़र आते हैं.

एक वक्त था जब कार्ती परवना ने अफ़ग़ान हिंदुओं और सिखों की दुकानों और घरों से भरा था.

स्थानीय निवासी राम शरण भसीन कहते हैं, "एक वक्त ये पूरा इलाका हिंदुओं और सरदारों का था. हिंदुओं का करेंसी और कपड़े का बिज़नेस था. डॉक्टर थे, हिंदू थे. पंसारी का काम हिंदुओं का था. सरकारी पोस्टों में हिंदू डॉक्टर थे, इंजीनियर थे. वो फौज में थे."

वो कई सालों पहले के उन दिनों को याद करते हैं जब उनके मुताबिक काबुल पर रॉकेट की बरसात होती थी, और एक रॉकेट उनके घर पर गिरा लेकिन फटा नहीं.

वो कहते हैं, "मैं घर पर नहीं था. मेरी वाइफ़ घर पर थीं. भगवान ने बचा लिया. वो अच्छा है कि रॉकेट फटा नहीं. अगर फट जाता तो न मेरा घर होता, न बीवी होती."

राम शरण भसीन
लेकिन आज तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में डर के साये में या तो लोग घरों में बंद हैं, या फिर बहुत ज़रूरी काम पड़ने पर कुछ देर के लिए ही निकलते हैं.

एक आंकड़े के मुताबिक 1992 से पहले अफ़ग़ानिस्तान में दो लाख 20 हज़ार से ज़्यादा हिंदू और सिख थे.

लेकिन पिछले 30 सालों में हिंदू और सिखों पर हमलों, भारत या दूसरे देशों में पलायन के बाद आज उनकी संख्या 100 के आसपास रह गई है, और ये संख्या लगातार कम हो रही है.

अफ़ग़ानिस्तान की स्थानीय संस्था पोर्सेश रिसर्च एंड स्टडीज़ ऑर्गेनाइज़ेशन अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर काम करती है.

तालिबान के आने के बाद संस्था अभी बंद है और संस्था में काम करने वाले कई लोगों ने देश छोड़ दिया है.

संस्था ने अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं और सिखों की हालत पर हाल की अपनी एक रिपोर्ट में कहा, "अफ़ग़ानिस्तान से हिंदुओं और सिखों के पलायन का इतिहास 1980 के दशक के सोवियत कब्ज़े और अफ़ग़ानिस्तान में कठपुतली कम्युनिस्ट सरकारों के ख़िलाफ़ जिहाद विरोधी आंदोलन से जुड़ा है. तभी से हर दिन के प्रतिबंध, अत्याचार और अल्पसंख्यकों का देश से पलायन जारी है."

रिपोर्ट के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान के हिंदुओं और सिखों के लिए 1960 से 1980 का वक्त सबसे शांति का था जब उन्हें लाला या बड़ा भाई कहकर पुकारा जाता था और उनके आम लोगों से संबंध अच्छे थे.

लेकिन उनका बड़ी संख्या में पलायन 1988 से शुरू हुआ जब 13 अप्रैल बैसाखी के दिन जलालाबाद में हथियार लिए एक व्यक्ति ने 13 सिख श्रद्धालुओं और चार मुस्लिम सिक्योरिटी गार्ड्स की गोली मारकर हत्या कर दी.

अपहरण, धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक उत्पीड़न, उनकी ज़मीन और प्रॉपर्टी को हड़प लिए जाने आदि से हिंदुओं और सिखों की आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक हालत ख़राब हुई.

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रिपोर्ट के लेखक अली दाद मोहम्मदी हिंदुओं और सिखों के साथ सालों से चले आ रहे कथित भेदभाव पर कहते हैं, "जब भी वो घरों से निकलते थे, उनके बच्चों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था. उन्हें ग़ैर-मुसलमान, हिंदू कचालू कहकर बुलाया जाता था. वो ऐसे माहौल में थे कि उनके पास कोई विकल्प नहीं था. या तो वो अफ़गानिस्तान छोड़ दें, या फिर अफ़गानिस्तान में घरों से बाहर न जाएं. बाद में उनकी प्रॉपर्टी, घरों को लड़ाकों के नेताओं ने हड़प लिया."

रिपोर्ट के लेखक अली दाद मोहम्मदी
क़ाबुल में रह रहे मोहम्मदी के मुताबिक 10 प्रांतों में फ़ील्डवर्क के आधार पर उन्हें जानकारी मिली कि हिंदू मंदिरों और गुरुद्वारों को तबाह कर उन्हें कूड़ेदान की तरह या वहां अपने जानवर बांधने के लिए इस्तेमाल किया गया.

जो गुरुद्वारे बच गए, उनमें से कुछ पर घातक चरमपंथी हमले हुए.


कार्ती परवान गुरुद्वार पर हमला और मरम्मत
इस साल जून की बात है जब कार्ती परवान इलाके के इस बेहद पुराने गुरुद्वारे पर चरमपंथी हमले में एक सिख की मौत हो गई, गुरुद्वारे को काफ़ी नुकसान पहुंचा.

हम पहुंचे कार्ती परवान गुरुद्वारे में जहां तालिबान की आर्थिक मदद से मरम्मत का काम चल रहा था. गुरुद्वारे में घूमते, सीढ़ियों से चढ़ते- उतरते दिखा कि जून में हुए हमले से गुरुद्वारे को कितना नुकसान पहुंचा.

उस दिन यहां रखी हुईं सिखों के इतिहास से जुड़ी किताबें, पोथियां, कुर्सी मेज़, सिक्योरिटी कैमरे, खिड़कियां, कालीन, अलमारियां और न जाने क्या क्या जल गया.

हमें बताया गया कि मरम्मत कर रहे लोग सभी स्थानीय अफ़गान थे. गुरुद्वारे में कोई पत्थर घिस रहा था तो कोई सफ़ाई कर रहा था.

गुरनाम सिंह राजवंश
जब हमला हुआ, तो गुरुद्वारे के केयरटेकर गुरनाम सिंह राजवंश उस दिन नज़दीक ही थे.

वो कहते हैं, "गुरुद्वारे के पीछे हमारा घर है, हम उधर रहते हैं. जब खबर आई कि गुरुद्वारे पर हमला हो गया तो हम यहां आ गए. देखा कि रोड बंद है. 18 बंदे गुरुद्वारे में थे. बहुत परेशानी थी. एक सविंदर सिंह जी थे, वो बाथरूम में शहीद हो गए."

इस इंटरव्यू के बाद दूसरे हिंदुओं और सिखों की तरह गुरनाम सिंह भी भारत चले गए, लेकिन अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में ऐसे लोग हैं जिन्हें भारतीय वीज़ा का बेसब्री से इंतज़ार है, क्योंकि एक के बाद एक हो रहे हमलों के वजह से उनमें असुरक्षा बढ़ रही है.

क़ाबुल आने से पहले दिल्ली के तिलक नगर में गुरु अर्जुन देव जी गुरुद्ववारे में मेरी मुलाकात हरजीत कौर और उनके परिवार से हुई. वो कुछ समय पहले ही काबुल से दिल्ली पहुंची थीं.

उनके तीन बच्चों में से एक बच्चे के दिल में छेद है. दिल्ली पहुंचकर वो बहुत चिंतामुक्त नज़र आ रही थीं.

हरजीत ने बताया कि अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के पहले भी हालात खराब थे और अब ज़्यादा खराब थे. बम धमाकों और गोलियों से वहां जान का खतरा बहुत ज़्यादा था, दिन भर घर में बंद रहना पड़ता और बच्चों की पढ़ाई बंद थी.

उधर गुरनाम सिंह बताते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में ऐसे कुछ लोग भी है जो भारत गए लेकिन उन्हें पारिवारिक या बिज़नेस, या प्रॉपर्टी की मजबूरी की वजह से अफ़गानिस्तान आना पड़ा.

हरजीत सिंह से बात करते हुए विनीत खरे


अल्पसंख्यकों पर हमले जारी
कार्ती परवान गुरुद्वारा सड़क की एक तरफ़ है. सड़क की दूसरी ओर सिखों की दुकानें हैं जिनमें से एक पर पिछले महीने जुलाई में ग्रेनेड से अज्ञात लोगों ने हमला किया.

हमले से यूनानी दवाओं की इस दुकान को चार लाख अफ़गानी (अफ़ग़ानिस्तान की मुद्रा) तक का नुकसान पहुंचा लेकिन किसी को चोट नहीं आई.

अरजीत सिंह
दोपहर में हुए इस हमले के वक्त दुकान के मालिक अरजीत सिंह नज़दीक ही खाना खाने पास की दुकान पर गए थे जब उन्हें ज़ोर का धमाका सुनाई दिया.

उन्होंने बताया, "हम बाहर निकले देखने कि क्या हो गया. देखता हूं कि मेरी दुकान से धुआं निकल रहा है. यहां बीच में काउंटर पड़ा था बड़ा सा. वो तो ऐसे चूर-चूर हो गया था कि पूछो मत. माल नीचे बिखरा था."

लेकिन अरजीत के जीवन पर चरमपंथ का असर पहले भी पड़ चुका है.

अरजीत के मुताबिक़, कार्ती परवान गुरुद्वारे हमले में मारे गए सविंदर सिंह उनके जीजा थे. इससे पहले 2018 हमले में भी उनके परिवार के लोग मारे गए थे.

उनकी दुकान के बगल में यूनानी दवाओं की एक अलग दुकान चलाने वाले सुखबीर सिंह खालसा के मुताबिक ग्रेनेड हमले से हिंदी और सिखों में बहुत ज़्यादा डर है.

वो कहते हैं, "कल वहां (हमला हुआ था). हो सकता है आज यहां हो. मेरी ड्यूटी सुबह आठ बजे से चार बजे तक है. मैं अभी आया हूं साढ़े तीन बजे दुकान पर. बीवी बच्चे नहीं छोड़ते. गुरुद्वारा भी बंद है. हम गुरु के दर्शन नहीं कर पा रहे हैं. मुझ पर क्या गुज़रती है, ये मुझे पता है."

सुखबीर सिंह खालसा के घर में सभी का भारतीय वीज़ा गया है लेकिन उनकी पत्नी का वीज़ा नहीं हो पाया है, जिसका उन्हें इंतज़ार है. ऐसे और भी परिवार हैं जिनके परिवार के कुछ सदस्यों को वीज़ा मिला जबकि कुछ को भारतीय वीज़ा का इंतज़ार है.

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काबुल पुलिस के प्रवक्ता खालिद ज़ादरान
अफ़ग़ानिस्तान से भाग रहे हिंदुओं और सिखों पर तालिबान का कहना है कि उनकी नीति सभी की रक्षा करना है.

काबुल पुलिस के प्रवक्ता खालिद ज़ादरान ने बातचीत में कहा, "हमारी नीति सभी की यानी अफ़गानिस्तान के हर नागरिक की रक्षा करना है और ये हिंदू और सिख अल्पसंख्यकों पर लागू होता है. हम उन्हें सुरक्षा दे रहे हैं. अगर उन्हें लगता है कि उन्हें कोई खतरा है तो उन्हें इस जानकारी को हमारी फ़ोर्सेज़ के साथ शेयर करना चाहिए. वो उन्हें सुरक्षा देने के लिए हैं."

तालिबान सड़कों पर भारी-भारी गाड़ियों पर बंदूक लिए गश्त लगाते नज़र आते हैं.

अफ़गानिस्तान दशकों से युद्ध, बम धमाकों, टार्गेटेड किलिंग के साए में जी रहा है. अंतरराष्ट्रीय फंडिंग रुक जाने से, पिछले कुछ महीनों में सूखे और भूकंप की स्थिति से, अर्थव्यवस्था की बुरी हालत के कारण लोग भीख तक मांगने को मजबूर हैं और लोगों के लिए खाने, दवाइयों का इंतज़ाम करना मुश्किल हो रहा है.

जिसके लिए संभव है, वो ये देश छोड़कर जा रहा है.

डर जताया जा रहा है कि जैसे बामियान में बौद्ध नहीं रहे, या फिर हेरात या पश्चिमी अफ़गानिस्तान से ईसाई चले गए, वो दिन दूर नहीं जब एक दिन इतिहासकार कहें कि एक वक्त था जब अफ़गानिस्तान में हिंदू और सिख रहा करते थे.

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