कनकधारा स्तोत्र: रोज कीजिये इसका पाठ, बरसेगा धन ही धन
कनकधारा स्तोत्र पढ़ने के कईं लाभ है। यह देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने में मदद करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से धन और समृद्धि आकर्षित होती है और बुरी शक्तियों और नकारात्मकता से बचने में भी मदद मिलती है।
कनकधारा स्तोत्र देवी लक्ष्मी को समर्पित एक स्तोत्र है जिसे आदि शंकराचार्य द्वारा लिखा गया था। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी की सुंदरता, दया और उदारता का वर्णन करता है। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी से धन, समृद्धि और शांति का आशीर्वाद मांगने के लिए भी एक प्रार्थना है।
कनकधारा स्तोत्र पढ़ने का सबसे अच्छा समय शुभ मुहूर्त के दौरान होता है जैसे कि दिवाली, धनतेरस और अक्षय तृतीया। हालाँकि, आप इसे किसी भी दिन या किसी भी समय पर पढ़ सकते हैं।
कनकधारा स्तोत्र पढ़ने के कईं लाभ है। यह देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने में मदद करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से धन और समृद्धि आकर्षित होती है और बुरी शक्तियों और नकारात्मकता से बचने में भी मदद मिलती है।
कनकधारा स्तोत्रम की कहानी – Story of Kanakadhara Stotram (Hindi)
कनकधारा स्तोत्र की कहानी बहुत ही पुरानी और प्रचलित है। पुराणों के अनुसार, एक दिन जगद्गुरु आदि शंकराचार्य अपने भोजन का प्रबंध करने के लिए भिक्षा पर निकल पड़े। और भ्रमण के दौरान, वे एक गरीब ब्राह्मण महिला के घर के समीप पहुंचे और भिक्षा का आग्रह करने लगे।
महिला के पास भिक्षा में देने के लिए कुछ भी नहीं था। किन्तु उसने लज्जा को छुपाया और घर में भिक्षा की खोज जारी रखी। अंत में, वो केवल एक आंवला ही एकत्र करने में सफल हो पायी। उस महिला ने शंकराचार्य से अनुरोध किया कि वे इस आंवले को भिक्षा के रूप में स्वीकार करें।
शंकराचार्य को ब्राह्मण महिला की यथा-स्थिति और गरीबी पर दया आ गयी। वे महिला के स्वार्थहीन और दयालु आचरण से भी काफी प्रभावित हुए। प्रभावित होकर शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी का आह्वान करते हुए २१ छंद रचे। देवी लक्ष्मी इन २१ छंदों से प्रसन्न हुईं और शंकराचार्य के समक्ष प्रकट हुईं।
देवी लक्ष्मी ने शंकराचार्य के छंदों से प्रसन्न होते हुए उनसे पूछा कि उन्होंने उनका आह्वान क्यों किया? तब शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से प्रार्थना की, कि वे इस गरीब ब्राह्मण महिला के परिवार को धन-धान्य से सुसज्जित कर उनकी गरीबी और दरिद्रता को समाप्त करने की कृपा करें।
देवी लक्ष्मी ने शंकराचार्य की प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए कहा कि ये महिला पूर्वजन्म में परोपकारी नहीं थी और अपने कर्मों के नियमों से बंधी होने के कारण इस वर्तमान जन्म में इसे गरीबी और दरिद्रता को भोगना अनिवार्य है। तत्पश्चात्, शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से अनुरोध करते हुए कहा कि महिला में पूर्ण निस्वार्थ भाव होने के कारण उसे अतीत में किये गए कुकर्मों और उनके बंधनों से मुक्त कर दिया जाना चाहिए। केवल आप ही ब्रह्मदेव द्वारा लिखित भविष्य को सम्पादित व निष्पादित करने में समर्थ हैं। देवी लक्ष्मी शंकराचार्य के इस कथन से प्रसन्न होकर गरीब ब्राह्मण महिला के घर पर शुद्ध सोने से बने आंवले की वर्षा कर देती हैं।
उसके बाद आदि शंकराचार्य द्वारा रचित इन इक्कीस छंदों को कनकधारा स्तोत्रम के नाम से जाना जाने लगा। ये स्तोत्रम देवी लक्ष्मी को अति-प्रिय है।
कनकधारा स्तोत्र आदि शंकराचार्य ने लिखा था और देवी लक्ष्मी को समर्पित है। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी को उदार, दयालु और सुंदर बताता है। यह स्तोत्र भी देवी लक्ष्मी से धन, समृद्धि और शांति की प्रार्थना है।
कनकधारा स्तोत्र पढ़ने का सबसे अच्छा समय दिवाली, धनतेरस और अक्षय तृतीया है। यद्यपि, आप इसे किसी भी समय पढ़ सकते हैं।
कनकधारा स्तोत्र पढ़ने के बहुत से फायदे हैं। यह देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने में मदद करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से आप धन और समृद्धि आकर्षित कर सकते हैं और बुरी शक्तियों और नकारात्मकता से बच सकते हैं।
कनकधारा स्तोत्रम का इतिहास— Kanakadhara Stotram की कहानी (हिंदी)
कनकधारा स्तोत्र की कहानी बहुत पुरानी है। पुराणों के अनुसार, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य एक दिन भिक्षा पर निकल पड़े। यात्रा के दौरान वे एक गरीब ब्राह्मण महिला के घर के पास पहुंचे और भिक्षा माँगने लगे।
महिला के पास भिक्षा में देने को कुछ भी नहीं था। लेकिन उसने लज्जा को छिपाकर घर में भिक्षा की तलाश की। अंततः वह केवल एक आंवला एकत्र कर पाई। उस महिला ने शंकराचार्य से कहा कि इस आंवले को भिक्षा के रूप में लें।
शंकराचार्य को ब्राह्मण महिला की स्थिति और गरीबी पर दया आ गई। महिला के दयालु और स्वार्थहीन व्यवहार से भी वे काफी प्रभावित हुए। शंकराचार्य ने प्रभावित होकर देवी लक्ष्मी का आह्वान करते हुए 21 छंद लिखे। इन 21 छंदों से देवी लक्ष्मी प्रसन्न हुईं और शंकराचार्य के सामने प्रकट हुईं।
शंकराचार्य के छंदों से प्रसन्न होकर देवी लक्ष्मी ने पूछा कि उन्होंने उनका आह्वान क्यों किया? तब शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से विनती की कि वे इस गरीब ब्राह्मण महिला के परिवार को धन-दौलत से भर दें और उनकी गरीबी और दरिद्रता को दूर करें।
शंकराचार्य की प्रार्थना को देवी लक्ष्मी ने ठुकरा दिया, कहते हुए कि ये महिला पहले जन्म में परोपकारी नहीं थी और इस जन्म में अपने कर्मों के नियमों से बंधी होने के कारण गरीबी और दरिद्रता को भोगनी चाहिए। तब शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी से कहा कि महिला पूरी तरह से निस्वार्थ है, इसलिए उसे पुराने पापों और बंधनों से मुक्त करना चाहिए। ब्रह्मदेव के लिखित भविष्य को आप ही बदल सकते हैं। देवी लक्ष्मी शंकराचार्य इस बात से प्रसन्न होकर गरीब ब्राह्मण महिला के घर पर शुद्ध सोने से बने आंवले बरसा देती हैं।
कनकधारा स्तोत्रम, आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित इन इक्कीस छंदों का नाम बन गया। ये स्तोत्रम देवी लक्ष्मी को बहुत अच्छा लगता है।
श्री कनकधारा स्तोत्र (हिन्दी अर्थ सहित)
ॐ अङ्गं हरै (हरेः) पुलकभूषण-माश्रयन्ती भृङ्गाऽगनेव मुकुला-भरणं तमालं |
अंगीकृता-ऽखिलविभूतिर-पॉँगलीला-माँगल्य-दाऽस्तु मम् मङ्गलदेवतायाः || १ ||
अर्थ – जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमाल-तरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो प्रकाश श्रीहरि के रोमांच से सुशोभित श्रीअंगों पर निरंतर पड़ता रहता है तथा जिसमें संपूर्ण ऐश्वर्य का निवास है, संपूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी भगवती महालक्ष्मी की वह दृष्टि मेरे लिए मंगलदायी हो।
मुग्धा मुहुर्विदधी वदने मुरारेः प्रेमत्रपा प्रणि-हितानि गताऽगतानि ।
मला-र्दशोर्म-धुकरीव महोत्पले या सा में श्रियं दिशतु सागर सम्भवायाः || २ ||
अर्थ – जैसे भ्रमरी महान कमल दल पर मंडराती रहती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि के मुखारविंद की ओर बराबर प्रेमपूर्वक जाती है और लज्जा के कारण लौट आती है। समुद्र कन्या लक्ष्मी की वह मनोहर मुग्ध दृष्टिमाला मुझे धन संपत्ति प्रदान करें।
विश्वामरेन्द्र पद-विभ्रम-दानदक्षमा-नन्दहेतु-रधिकं मुरविद्विषोपि |
ईषन्निषीदतु मयि क्षण मीक्षणार्धं-मिन्दीवरोदर सहोदर-मिन्दीरायाः || ३ ||
अर्थ – जो देवताओ के स्वामी इंद्र को के पद का वैभव-विलास देने में समर्थ है, मधुहंता नाम के दैत्य के शत्रु भगवान विष्णु को भी आप आधिकाधिक आनंद प्रदान करने वाली है, नीलकमल जिसका सहोदर है अर्थात भाई है, उन लक्ष्मीजी के अर्ध खुले हुए नेत्रों की दृश्टि किंचित क्षण के लिए मुझ पर पड़े।
आमीलिताक्ष-मधिगम्य मुदा-मुकुन्दमा-नन्द कंद-मनिमेष-मनंगतन्त्रं |
आकेकर स्थित कनीतिक-पद्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्ग शयाङ्गनायाः || ४ ||
अर्थ – जिसकी पुतली एवं भौहे काम के वशीभूत हो अर्धविकसित एकटक आँखों से देखनेवाले आनंद सत्चिदानन्द मुकुंद भगवान को अपने निकट पाकर किंचित तिरछी हो जाती हो, ऐसे शेष पर शयन करने वाले भगवान नारायण की अर्द्धांगिनी श्रीमहालक्ष्मीजी के नेत्र हमें धन-संपत्ति प्रदान करे।
बाह्यन्तरे मुरजितः (मधुजितः) श्रुत-कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याण-मावहतु में कमला-लयायाः ॥ ५ ॥
अर्थ – जो भगवान मधुसूदन के कौस्तुभमणि-मंडित वक्षस्थल में इंद्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती है तथा उनके भी मन में प्रेम का संचार करने वाली है, वह कमल-कुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करे।
कालाम्बुदालि ललितो-रसि कैटभारे-र्धाराधरे स्फुरति या तडिदंगनेव |
मातुः समस्त-जगतां महनीय-मूर्तिर्भद्राणि में दिशतु भार्गव-नंदनायाः || ६ ||
अर्थ – जिस तरह से मेघो की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार मधु-कैटभ के शत्रु भगवान विष्णु के काली मेघपंक्ति की तरह सुमनोहर वक्षस्थल पर आप एक विद्युत के समान देदीप्यमान होती हो, जिन्होंने अपने अविर्भाव से भृगुवंश को आनंदित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी है वो भगवती लक्ष्मी मुझे कल्याण प्रदान करे।
प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत प्रभावा-न्मांगल्य-भाजि मधुमाथिनी मन्मथेन |
मय्यापतेत्त-दिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालय-कन्यकायाः || ७ ||
अर्थ – समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि, जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर पड़े।
दद्याद दयानु-पवनो द्रविणाम्बु-धारामस्मिन्न-किञ्चन विहङ्ग-शिशो विषण्णे |
दुष्कर्म-धर्म-मपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी-नयनाम्बु-वाहः ॥ ८ ॥
अर्थ – भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी धाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें।
इष्टा-विषिश्टम-तयोऽपि यया दयार्द्र-दृष्टया त्रिविष्ट-पपदं सुलभं लभन्ते ।
दृष्टिः प्रहष्ट-कमलोदर-दीप्ति-रिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्कर-विष्टरायाः || ९ ||
अर्थ – विशिष्ट बुद्धिवाले मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी दयादृष्टि के प्रभाव से स्वर्गपद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं पद्मासना पद्मा की वह विकसित कमल गर्भ के समान कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोवांछित पुष्टि प्रदान करे।
गीर्देव-तेति गरुड़-ध्वज-सुन्दरीति शाकम्भ-रीति शशि-शेखर-वल्लभेति |
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थि-तायै तस्यै नमस्त्रिभुवनै-कगुरोस्तरुण्यै || १० ||
अर्थ – जो माँ भगवती श्री सृष्टिक्रीड़ा में अवसर अनुसार वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है, पालनक्रीड़ा के समय लक्ष्मी के रूप में विष्णु की पत्नी के विराजमान होती है, प्रलयक्रीड़ा के समय शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रूद्रशक्ति) भगवान शंकर की पत्नी के रूप में विद्यमान होती है, उन त्रिलोक के एकमात्र गुरु पालनहार विष्णु की नित्य यौवना प्रेमिका भगवती लक्ष्मी को मेरा सम्पूर्ण नमस्कार है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभ-कर्मफल-प्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणार्ण-वायै |
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र-निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै || ११ ||
अर्थ – हे माता ! शुभ कर्मों का फल देनेवाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिन्धुरूप रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करनेवाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तमप्रिया पुष्टि को नमस्कार है।
नमोऽस्तु नालीकनि-भाननायै नमोऽस्तु दुग्धो-दधि-जन्म-भूत्यै |
नमोऽस्तु सोमा-मृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै || १२ ||
अर्थ – कमल वदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिंधु सभ्यता श्रीदेवी को नमस्कार है। चंद्रमा और सुधा की सगी बहन को नमस्कार है। भगवान नारायण की वल्लभा को नमस्कार है।
नमोऽस्तु हेमाम्बुज पीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डल नयिकायै ।
नमोऽस्तु देवादि दया-परायै नमोऽस्तु शारङ्ग-युध वल्लभायै || १३ ||
अर्थ – सोने के कमलासन पर बैठनेवाली, भूमण्डल नायिका, देवताओ पर दयाकरनेवाली, शाङ्घायुध विष्णु की वल्लभा शक्ति को नमस्कार है।
नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि संस्थितायै ।
नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै || १४ ||
अर्थ – भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में निवास करनेवाली देवी, कमल के आसनवाली, दामोदर प्रिय लक्ष्मी, आपको मेरा नमस्कार है।
नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै |
नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥ १५ ॥
अर्थ – भगवान् विष्णु की कान्ता, कमल के जैसे नेत्रोंवाली, त्रैलोक्य को उत्पन्न करने वाली, देवताओ के द्वारा पूजित, नन्दात्मज की वल्लभा ऐसी श्रीलक्ष्मीजी को मेरा नमस्कार है।
सम्पत्कराणि सकलेन्द्रिय-नंदनानि साम्राज्य-दान-विभवानि सरो-रुहाक्षि ।
त्वद्वन्द-नानि दुरिता-हरणो-द्यतानी मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये || १६ ||
अर्थ – कमल सदृश नेत्रों वाली माननीय मां! आपके चरणों में किए गए प्रणाम संपत्ति प्रदान करने वाले, संपूर्ण इंद्रियों को आनंद देने वाले, साम्राज्य देने में समर्थ और सारे पापों को हर लेने के लिए सर्वथा उद्यत हैं, वे सदा मुझे ही अवलम्बन दें। मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे।
यत्कटाक्ष-समुपासना-विधिः सेव-कस्य सकलार्थ-सम्पदः ।
सन्त-नोति वचनाङ्ग-मानसै-स्त्वां मुरारि-हृदयेश्वरीं भजे ॥ १७ ॥
अर्थ – जिनके कृपा कटाक्ष के लिए की गई उपासना उपासक के लिए संपूर्ण मनोरथों और संपत्तियों का विस्तार करती है, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मी देवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूं।
सरसिज-निलये सरोज-हस्ते धवल-तमांशुक-गन्धमाल्य-शोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवन-भूतिकरि प्रसीद मह्यं ॥ १८ ॥
अर्थ – हे भगवती नारायण की पत्नी आप कमल में निवास करने वाली है, आप के हाथो में नीलकमल शोभायमान है आप श्वेत वस्त्र, गंध और माला आदि से सुशोभित है, आपकी झांकी बड़ी मनोहर है, अद्वितीय है, हे त्रिभुवन के ऐश्वर्य प्रदान करनेवाली आप मुझ पर भी प्रसन्न हो जाईये।
दिग्ध-स्तिभिः कनककुम्भ-मुखावसृष्ट-स्वर्वाहिनी-विमलचारु-जलप्लु तांगीं ।
प्रात-र्नमामि जगतां जननी-मशेष-लोकाधिनाथ-गृहिणी-ममृताब्धि-पुत्रीं || १९ ॥
अर्थ – दिग्गजों द्वारा स्वर्ण कलश के मुख से गिराए गए, आकाशगंगा के स्वच्छ और मनोहर जल से जिन भगवान के श्रीअंगो का अभिषेक (स्नान) होता है, उस समस्त लोको के अधीश्वर भगवान विष्णु की गृहिणी, समुद्र तनया (क्षीरसागर पुत्री), जगतजननी भगवती लक्ष्मी को मै प्रातःकाल नमस्कार करता हू ।
कमले कमलाक्ष-वल्लभे त्वां करुणा-पूरतरङ्गी-तैर-पारङ्गैः ।
अवलोक-यमां-किञ्चनानां प्रथमं पात्रम-कृत्रिमं दयायाः || २० ||
अर्थ – कमल नयन केशव की कमनीय कामिनी कमले! मैं अकिंचन (दीन-हीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूं, अतएव तुम्हारी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूं। तुम उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरह तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर देखो।
स्तुवन्ति ये स्तुति-भिरमू-भिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवन-मातरं रमां ।
गुणाधिका गुरु-तरभाग्य-भाजिनो (भागिनो) भवन्ति ते भुवि बुध-भाविता-शयाः || २१ ||
अर्थ – जो मनुष्य इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयी स्वरूपा त्रिभुवन-जननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान गुणवान और अत्यंत सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान पुरुष भी उनके मनोभावों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं।
ॐ सुवर्ण-धारास्तोत्रं यच्छंकराचार्य निर्मितं |
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं स कुबेरसमो भवेत || २२ ||
अर्थ – यह उत्तम स्तोत्र जो आद्यगुरु शंकराचार्य विरचित स्तोत्र का (कनकधारा) का पाठ तीनो कालो में (प्रातःकाल मध्याह्नकाल-सायंकाल) करता है वो मनुष्य या साधक कुबेर के समान धनवान हो जाता है।
॥ इति श्रीमद्द शंकराचार्य विरचित कनकधारा स्तोत्र सम्पूर्णं॥
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