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14 अगस्त 1947: आज के दिन ही पाकिस्तान से ट्रेन चलते ही बिछने लगीं थी लाशें, पढे पूरी कहानी

August 14, 1947: On this day, the dead bodies started laying as soon as the train was moving from Pakistan, read the full story
 
14 अगस्त 1947: आज के दिन ही पाकिस्तान से ट्रेन चलते ही बिछने लगीं थी लाशें, पढे पूरी कहानी 

Haryana Update. बंटवारे में केवल सीमाएं, शरीर नहीं, भावनाएं-उम्मीदें-मोहब्बत सबकुछ बंटा। उस ओर से कई ऐसे शरीर आए, जिनमें सांस चल रही थी और दिल धड़क रहा था।

डॉक्टरी भाषा में यही जीवन का सबूत है इसलिए लोगों ने उन्हें जीवित माना, मगर जीवन तो वहीं छूट गया था। मजबूर होकर मातृभूमि को छोड़ने वालों से बात करेंगे तो समझ आएगा बंटवारे में कैसे उनकी आत्मा बंट गई। 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस पर हिन्दुस्तान की विशेष प्रस्तुति...

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1- आज भी परिवार के लोग पाकिस्तान में झेल रहे पीड़ा


दिल्ली विश्वविद्यालय में सिंधी के प्रोफेसर और राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद के निदेशक प्रो। रविप्रकाश टेकचंदाणी के पिता ने उन्हें बंटवारे की कहानी बताई थी। प्रो। टेकचंदाणी बताते हैं कि विभाजन के बाद माता-पिता, बड़ी बहन, नाना-नानी और पिताजी की बहन सिंध से पानी के जहाज से मुंबई आ गए।

यहां से उत्तर प्रदेश होते हुए मधुबनी गए क्योंकि वहां मेरे मामा का ईंट भट्टे का व्यवसाय था। विभाजन के बाद मेरे पिता, नाना, मां सब सिंध की कहानियां बताते थे। पिता की आंखों में विभाजन की पीड़ा साफ दिखती थी। यह पीड़ा हमने भी महसूस की।

मैं 2006 में दिल्ली से बस से लाहौर और वहां से फिर सिंधु गया। सिंध गया तो मैंने उस भूमि को चूम लिया। मैंने ऐसा महसूस किया कि मेरे स्वर्गीय पिता मेरे माध्यम से अपनी जन्मभूमि में आ गए हैं। पिता जी विभाजन के बाद कई लोगों के साथ आ गए लेकिन वहां भी एक परिवार छोड़ आए थे जिसमें मेरे चाचा और अन्य लोग थे। विस्थापन का दर्द ताउम्र उन्हें रहा। मां और पिता कभी सिंध नहीं जा पाए।

2- 15 रुपये लेकर पाकिस्तान से आए थे भारत
15 अगस्त से तीन दिन पहले मनप्रीत सिंह को पता चला कि उन्हें अपना घर छोड़कर दूसरे मुल्क जाना है। पटेल नगर निवासी 80 वर्षीय मनप्रीत सिंह (अब बोल नहीं पाते) के बेटे अमृत सिंह बताते हैं कि वे हमेशा पाकिस्तान के लाहौर में अपने घर और गांव की बातें करते थे। उनके पिता अपने भाइयों और पूरे परिवार समेत 15 अगस्त वाले दिन ही अमृतसर पहुंचे थे। वहां चारों तरफ अफरा-तफरी और भय का माहौल था।

परिवार के लोगों ने पंजाब छोड़ना ही उचित समझा और दिल्ली आ गए। यहां एक साल तक सरकारी कैंपों में बिताए। अमृत सिंह बताते हैं कि पाकिस्तान से आते वक्त उनके पिताजी के पास महज 15 रुपए थे, जिनके सहारे कुछ दिन घर-परिवार का पेट भर गया था।

3- गाजियादबाद : कुछ दर्द कलेजे में लगाने के लिए हैं: कुलदीप तलवार
साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार 88 वर्षीय कुलदीप तलवार ने बताया कि वह पाकिस्तान के जिला सरगोद की तहसील खुशआब में रहते थे। उनके पिता रामलुभाया तंबाकू का बड़ा व्यापार करते थे। घर में गाय, भैंस और बैल थे। परिवार में सबसे बड़े वही थे

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उनकी उम्र करीब 15 वर्ष थी। चार छोटी बहनें थी। मां कौशल्या देवी घर परिवार संभालती थी। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे का मुद्दा काफी गर्म था। फिर फैसला आया कि हिंदू हिंदुस्तान में जाएंगे और मुसलमान पाकिस्तान में रहेंगे। उनके पिता से कहा गया कि वह यहीं रहें और अपना धर्म बदल ले लेकिन पिता ने नहीं माना।

हालात बिगड़े तो माता-पिता सब कुछ छोड़ लाहौर से ट्रेन में बैठकर गाजियाबाद आ गए। पुराने दर्द को बयां करते हुए वह कहते हैं कि ये तो सिर्फ मका हैं लोगों, जिसमें पड़ाव है अपना, घर तो वो था जिसको हम बरसो पहले छोड़ आए।

4- कानपुर: अंशवाणी परिवार का एक हिस्सा पाकिस्तान में रह गया
सिंध के शिकारपुर जिले गढ़ियासीन ताल्लुक के जमींदार रहे अंशवाणी परिवार का एक हिस्सा अब कानपुर के रतनलाल नगर में रहता है। परिवार का दूसरा हिस्सा विभाजन के वक्त वहीं रह गया था। 1970 तक उनका पता चलता था उसके बाद कोई खबर नहीं मिली।

इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के अशोक अंशवाणी बताते हैं कि मेरे बाबा राधामल, भाइयों दासूमल और भाग्यमल के साथ गढ़ियासीन में रहते थे। जमींदारी थी, परिवार संपन्न था। अगस्त 1947 में पहले सप्ताह से ही मार-काट शुरू हो गई। परिवार ने तय किया कि बाबा राधामल और दासूमल सपरिवार गढ़ियासीन छोड़कर हिन्दुस्तान चले जाएंगे। सबसे छोटे भाग्यमल अविवाहित थे।

वह गढ़ियासीन में जायदाद की देखभाल करेंगे। हालात सुधरने के बाद आगे की योजना तय करेंगे। इस फैसले के तहत वे पत्नी ज्ञानी देवी, भाई दासूमल, पुत्र जमुनादास समेत सात सदस्यों का परिवार लेकर पैदल भागे। रास्ते में उनके भाई दासूमल की हत्या कर दी गई। परिवार के बाकी सदस्य किसी तरह बचकर पहले मुंबई फिर कानपुर पहुंचे।


 

5- बरेली: चाची और भाभी दंगों में छूट गईं, आजतक पता न चला
मथना फॉर्म के रहने वाले सरदार रंजीत सिंह की उम्र 114 साल हो गई है। लाहौर में रहने वाले रंजीत सिंह को विस्थापन के वक्त अपने परिवार को लेकर भारत आना पड़ा। भयंकर मार-काट के बीच रंजीत सिंह जान बचाकर पंजाब पहुंचे। वहां से किसी तरह खीरी जिले में आ बसे।

रंजीत बताते हैं कि वह कॉलेज के दिनों में क्रांतिकारी सरदार उधम सिंह से भी मिले। उस वक्त हम सब मिलकर अंग्रेजों से लड़ रहे थे। 1947 आते-आते लड़ाई हिन्दू-मुसलमान में बंट चुकी थी। रंजीत सिंह को इस बात का मलाल रहेगा कि उनकी भाभी और चाची उसी दंगे में कहीं छूट गई, जिनका बाद में कुछ नहीं पता चला।

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6- प्रयागराज: तीन भाई प्रयाग में, एक कराची में
बड़ा ताजिया मोहल्ले में रहने वाले मुख्तार अहमद के सबसे छोटे भाई रहमान अहमद जिद कर पाकिस्तान चले गए, जबकि तीन भाई मुख्तार, मुमताज और इम्तियाज अहम्मद यहीं रहे। 16 साल का रहमान जब पाकिस्तान के लिए निकला तो भाइयों ने बहुत रोका पर नहीं माना। परिवार वाले उसे तलाशने के लिए दिल्ली तक गए, लेकिन विभाजन की अफरा-तफरी में वह नहीं मिले।

रहमान आज कराची में व्यापार करते हैं। कटहौला गांव के मूल निवासी नबी उल्ला 1948 में पाकिस्तान पहुंच सके। उनकी पत्नी के भतीजे प्रयागराज में है। भतीजे इश्तियार बताते हैं अम्मी चार बहनें थीं। दो आज भी हिन्दुस्तान में हैं, दो कराची चली गईं। खालू नबीउल्ला तो कई बार सरहद तक जाकर लौट आए।

7- मुरादाबाद: पाकिस्तान से ट्रेन चलते ही बिछे देखे थे लाशों के ढेर


मुरादाबाद में 96 वर्षीय चमनलाल निझावन और उनकी 92 वर्षीय पत्नी राजरानी की आंखों में विभाजन की विभीषिका का मंजर अब भी ताजा है। चमनलाल बताते हैं कि तब मैं 22 साल का था। कराची में रेलवे की नौकरी कर रहा था। विभाजन के समय अपने घर झंग आया हुआ था।

वहां के हालात मार्च से ही तनावपूर्ण थे। विभाजन का ऐलान होते ही दंगाइयों ने हमारे और कई अन्य घरों पर कब्जा कर लिया। जान बचाकर हम सभी अनाज मंडी में इकट्ठा हो गए। खाने को कुछ नहीं था। मंडी में मिलने वाले गेहूं के दानों को पीसकर कच्चा खाते थे। एक महीने के बाद गोरखा रेजीमेंट के एस्कॉर्ट के साथ हमें अमृतसर के लिए ट्रेन मिली। ट्रेन चलते ही पटरियों के चारों तरफ बिछी हुईं लाशों के ढेर दिखे। छह दिन बाद ट्रेन अमृतसर पहुंची तो सिख स्वयंसेवकों ने हमें भोजन खिलाया।

8- दो मंजिला से चादर में नीचे फेंके गए थे सतपाल
मुरादाबाद के वरिष्ठ निर्यातक सतपाल की उम्र उस समय एक साल थी। तब वह माता-पिता की इकलौती संतान थे। उनका परिवार पाकिस्तान के लायलपुर (अभी फैसलाबाद) में रहता था। पिता वहां की मंडी में आढ़ती थे। विभाजन के ऐलान के बाद उनकी हवेली में दंगाई घुस गए।

जान बचाने के लिए सभी लोग दोमंजिले से नीचे कूद पड़े। एक साल के सतपाल को कपड़े में बांधकर नीचे फेंका गया। सतपाल ने बताया कि उनके पिता जेब में सिर्फ सौ रुपये ही ला सके थे। चल संपत्ति के साथ ही आभूषण हवेली में जमीन में ही दबे रह गए। यहां उनका परिवार कई दिनों तक गुलजारीमल धर्मशाला में बने शिविर में रहा। उनके पिता ने काफी संघर्षों के बाद साइकिल का काम शुरू किया।

9- छूटा था घरबार, शरणार्थी शिविर में गुजारी थीं कई रातें
मुरादाबाद के वयोवृद्ध चिकित्सक डॉ। डीपी मनचंदा ने बताया कि विभाजन होते ही दंगे के चलते उनका घरबार छूट गया। घर से बेदखल किए जाने के बाद उनका परिवार दो महीने तक रावलपिंडी के शरणार्थी शिविर में रहा। उस समय वे लाहौर के मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस का छात्र थे।

विभाजन का ऐलान होने के बाद बड़ी संख्या में लोगों ने अमृतसर पहुंचने के लिए ट्रेन पकड़ी, लेकिन दो ट्रेनों के यात्रियों को सामूहिक रूप से मौत के घाट उतार दिया गया। तब हमने फैसला किया कि अगर मरना ही है तो कैंप में मर जाएंगे, लेकिन ट्रेन से अमृतसर का सफर नहीं करेंगे। माहौल शांत होने पर अक्तूबर में हम ट्रेन से अमृतसर पहुंचे।

10- मेरठ: फूफा ने खुद ही पत्नी और बेटों की हत्या कर दी
मवाना के मोहल्ला खली चौक उर्फ खरात अली निवासी सईद उर्फ शाका की उम्र 87 साल है। उन्होंने कहा कि मेरे वालिद और तीन भाई बंटवारे में पाकिस्तान चले गए। मुझे आज भी हिन्दुस्तान से उतना ही प्यार है, जितना उस वक्त था। बस दर्द है वालिद और भाइयों का।

सहारनपुर के पूर्व विधायक लाज कृष्ण गांधी ने अपने परिवार के साथ विभाजन की विभीषिका झेली है। उस समय उनकी उम्र पांच वर्ष थी। उन्होंने 50 किलोमीटर की यात्रा पैदल की थी। वह बताते हैं कि विभाजन के दौरान दुश्मनों से बचने के लिए उनके फूफा ने खुद ही पत्नी और बेटे की हत्या कर दी थी।

मेरठ के हस्तिनापुर कस्बे की सी ब्लॉक कॉलोनी में रहनेवाले 86 वर्षीय प्यारे लाल ने बताया कि देश के विभाजन के समय वह 11 वर्ष के थे। वे अपने परिवार के साथ लायलपुर जनपद की तांदला मंडी में रहते थे। देश विभाजन के दौरान हथियार बंद लोग उनके घर पर आ चढ़े तो पड़ोसी बख्तावर सिंह ने फायरिंग करते हुए चार उपद्रवियों को मार गिराया, मगर कारतूस खत्म होने के कारण दंगाइयों ने बख्तावर सिंह को मार डाला था। आज भी उस समय को याद कर रूह कांप जाती है।

11- कानपुर: भयावह मंजर याद कर कांप उठते हैं भगवान सिंह
भगवान सिंह 12 जुलाई 1947 को अपने दो बड़े भाइयों के साथ पाकिस्तान के गुजरावाला से भारत आए। उस समय पाकिस्तान में बहुत तनाव था। लाहौर स्टेशन पर ट्रेन में बैठे सभी सिखों पर वहां की पुलिस बंदूक ताने खड़ी थी। भगवान सिंह के पिताजी और माताजी तीन बहनें वहीं रह गई थी।

भगवान सिंह अपने बड़े भाइयों के साथ लाहौर से ट्रेन पर चढ़कर जब भारत आ रहे थे तो रास्ते में वाहनों पर लाशें जाते देख यहां पानीपत के पास एक गुरुद्वारे में रुके। पानीपत में ही दूध बेचने का काम शुरू किया। यहां 3 साल रहे उसके बाद भगवान सिंह की तीनों बहनें और मां भी अचानक चली आई।

मां और बहने आने के बाद पता चला कि जिस पाकिस्तान के गांव में उनका परिवार रहता था वहां 180 सिखों की हत्या कर दी गई। भगवान सिंह के पिताजी की भी हत्या कर दी गई थी।

12- आगरा : 94 वर्षीय बाधूमल बोले- आंखों के सामने बस्ती के मुखिया को मार डाला
94 वर्षीय बाधूमल बताते हैं कि बंटवारे की खबर मिली तो बस घर से थोड़ा बहुत सामान लेकर निकल पड़े। ट्रेन में परिवार के साथ सवार ही हुए थे कि कई लोगों को काट डाला गया।

उनमें हमारी बस्ती के एक मुखिया भी शामिल थे। 19 साल उम्र में आंखों के सामने ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा था। कृष्णा कॉलोनी निवासी 94 वर्षीय बाधूमल बताते हैं कि हमारा पूरा परिवार सिंध प्रांत के हैदराबाद जिले में रहता था। हैदराबाद में 14 अगस्त 1947 की रात याद आते ही आज भी रूह कांप जाती है।

रात 12 बजे स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं थी। जैसे-तैसे सवार हुए तो पता चला कि कुछ लोगों को मार डाला गया। हमें रास्ते में कई ट्रेनें ऐसी मिली जिनमें आग लगा दी गई थी। लाशें बिछी पड़ी थीं।

13- ट्रेन में खून से लथपथ लोगों का मंजर नहीं भूलता
शुभम अपार्टमेंट निवासी 86 वर्षीय तिलकराज भाटिया बताते हैं कि सियालकोट से निकले तो ट्रेन खचाखच भरी थी। जैसे-तैसे सवार हुए। उसी दौरान एक और ट्रेन आई। जिसमें खून से लथपथ लोग भूसे की तरह भरे हुए थे। वह मंजर आज तक भुलाए नहीं भूलता।

ये घटना बयां करते हुए वह अपने परिवार के साथ सियालकोट में रहते थे। जब विभाजन हुआ तब उनकी उम्र 11 वर्ष की थी। मेरे बुजुर्ग मां, बाप, मेरी तीन जवाब बहनें, मैं और मेरे तीन छोटे भाई थे। जिन्हें देखकर लगता था कि कैसे जाएंगे।

मैंने अपने एक छोटे भाई को गोद में लिया और सभी लोग छुपते-छिपाते एक मील दूर स्थित स्टेशन तक पहुंच गए। एक गाड़ी जम्मू जाने के लिए खड़ी थी। उसी में किसी तरह से सवार हो गए।

14- दुधमुंहे जीवतराम को गोद में लेकर भागी थी बदहवास मां
शिकारपुर से आए जीवतराम ने बताया कि हमारा परिवार पाकिस्तान में रसूखदार माना जाता था। चावल की आढ़त में परिवार की पूंजी लगातार बढ़ रही थी। लेकिन विभाजन की मार ने सब खत्म कर दिया। मैं उस समय करीब ढाई बरस का था।

एकाएक सूचना आई कि जिस भी हाल में हों, सभी स्टेशन के लिए निकलें और पाकिस्तान छोड़ दें। मुझे गोद में लेकर मेरी मां बदहवास हाल में भागती हुई परिवार के साथ बचते-बचाते स्टेशन पहुंचीं। मां बताती थीं कि उस समय मुझे चुप कराने के लिए तमाम प्रयास के बाद भी दूध नहीं मिला था। हमारा परिवार जिस ट्रेन में था, वह भी खून से सनी हुई थी। बमुश्किल आगरा पहुंचे थे।

15- पूर्वी चम्पारण : झटके में बिखरा परिवार, पाक जाने के बाद नहीं मिला कोई संदेश
पूर्वी चंपारण जिले के ढाका प्रखंड के हसनपुर में भी एक परिवार के आधे लोग बंटवारे के समय अलग हो गए थे। हसनपुर के रोजा अंसारी और बेराहिम अंसारी दो भाई थे। हंसते-खेलते इस परिवार पर भी दोनों देशों के बंटवारे की मार पड़ी। बंटवारे की खबर मिलते ही बेराहिम अंसारी के परिवार के लोग पाकिस्तान चले गए।

भाई और ग्रामीणों ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, लेकिन वे नहीं माने। दूसरा भाई रोजा अंसारी का परिवार आज भी हसनपुर में रहता है। स्व। रोजा अंसारी के पुत्र सलीम अंसारी ने बताया कि जाने के बाद आज तक कोई खबर उनलोगों के बारे में नहीं मिली कि वे लोग किस हाल में और कहां हैं। जाने के बाद आज तक न तो कोई पत्र आया न कोई संदेश। परिवार के लोग टकटकी लगाए रहे कि शायद उनका कोई पत्र आये। लेकिन कोई पत्र नहीं आया।

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