अमृतपाल क्यों नही ले सकता भिंडरावाले की जगह -ये हैं 5 कारण
 

Amritpal Case : पिछले कुछ सालों में पंजाब में केवल राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक तौर पर भी काफी बदलाव हुए  है। 
 
 

AMRITPAL SINGH CASE PUNJAB: पंजाब की  नई पहचान जागरूकता है। पंजाब ने अलगाववाद से लेकर ड्रग्स तस्करी तक की बड़ी समस्याओं तक काबू पाने की कोशिश की है।
 यह अस्सी के दशक का पंजाब नहीं है, जब अलगाववाद कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बन जाता था । 
आज के पंजाब में जब-जब जिसने कानून को ठेंगा दिखाया, उसे  बर्बाद कर दिया गया। 


यही वजह है कि पंजाब के युवाओं को गुमराह करने वाला  अमृतपाल सिंह इन दिनों मारा-मारा फिर रहा है।


 खुफिया जानकारी के अनुसार, वह लगातार अपने भेष के साथ-साथ अपना स्थान भी बदल  रहा है। 


उसकी पोल खुलते  ही सुरक्षा एजेंसियां उसके पीछे पड़ गई  हैं। यानी पंजाब में उसके मंसूबे कभी कामयाब नहीं हो सकते। 


आखिर क्यों अमृतपाल सिंह भिंडरावाले की तरह कभी सफल नहीं हो सकता। आइये जानते है, वह पांच बड़े कारण -
 

केंद्र सरकार और राज्य  का एक सुर  में होना 

1980 का नहीं, यह 2023 का पंजाब है । आज पंजाब में कानून व्यवस्था पर सरकार की कड़ी नजर है। 
सन् 80 के दौर में जब जरनैल सिंह भिंडरावाले पंजाब में अपने उग्र विचारों को फैला रहा था, तब पंजाब सरकार और केंद्र की सरकार की तरफ से कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया।


जिसके चलते भिंडरावाले का आतंक पंजाब की कानून व्यवस्था के लिए चुनौती बन गया था। लेकिन आज राज्य सरकार से लेकर केंद्र की सरकार तक पंजाब में कानून व्यवस्था को लेकर चौकस है।


पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय के बीच को-ऑर्डिनेशन पूरी तरह से ठीक है। 


मार्च के पहले हफ्ते में मुख्यमंत्री भगवंत मान और गृह मंत्री अमित शाह ने बैठक भी की थी। जिसमें  भगवंत मान ने ट्वीट कर ये जानकारी दी कि उनके बीच ड्रोन, तस्करी और गैंगस्टर्स के मुद्दे पर बातचीत हुई है।

 


 खबर यह भी है कि पंजाब की शांति के लिए चुनौती बना अमृतपाल सिंह के संगठन 'वारिस पंजाब दे' पर बैन भी लगाया जा सकता है।
 

पंजाब की डेमोग्राफी में काफी बदलाव हुआ

पिछले चार दशक में पंजाब की डेमोग्राफी में काफी बदलाव आया है। आबादी पहले के मुकाबले बहुत तेजी से बढी है। 
 जानकारी के अनुसार, देश की बढ़ती आबादी की दर के मुकाबले ,  पंजाब में आबादी ज्यादा तेजी से बढ़ी है। साल 2011 की जगगणना के मुताबिक पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं। 
यहां सिख पंजाब की कुल आबादी का 57.69% है, वहीं यहां मुस्लिम आबादी कुल 2.77 करोड़ में से 5.35 लाख यानी 1.93 फीसदी है, ईसाई 3.48 लाख यानी 1.26 प्रतिशत जबकि हिंदुओं की संख्या कुल आबादी का 38.49% है। 
य़ानी पंजाब में सिखों के बाद हिंदू की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है। यही वजह है कि यहां हिंदू समुदाय चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां 4 जिले ऐसे हैं जहां हिंदुओं का वोट बैंक है। 
दूसरी तरफ सिखों की आबादी में 25 फीसदी जट्ट सिख हैं, जिनमें से ज्यादातर खालिस्तान आंदोलन के साथ थे लेकिन बाकी उसके विरोध में। 
लिहाजा अब 80के दशक की तरह यहां खालिस्तान की मांग जोर नहीं पकड़ सकती।

 

 

दुनिया भर में अलगावादी आंदोलन ठंडे पड़ गए 

पंजाब की सबसे बड़ी समस्या अलगाववाद रही है। जिसे पड़ोसी देश पाकिस्तान हवा देता रहा है, लेकिन पंजाब में आज की तारीख में यह संभव नहीं है। 
ऑपरेशन 'ब्लू स्टार' के बाद पंजाब में अलगाववादी विचारधारा की कमर टूट गई थी। हाल ही में अमृतपाल सिंह के सुर्खियों में आने के बाद एक बार फिर कुछ खालिस्तान समर्थक सामने आए, लेकिन सरकार और सुरक्षा एजेंसियों की कार्रवाई के बाद खुद अमृतपाल भागा भागा फिर रहा है। 


 देखा जाए तो भारत के दूसरे क्षेत्रों और दुनिया के तमाम मुल्कों में भी अलगाववाद ट्रैक से हट चुका है। 


भारत में खालिस्तान समेत नागा, उल्फा या फिर जम्मू-कश्मीर का अलगाववादी आंदोलन सब पर सरकार शिकंजा कस चुकी हैं । यहां राज्य और केंद्र सरकार ने अलगाववादी आंदोलनों को वहां की आम जनता के सहयोग से बिल्कुल खत्म कर दिया है। जम्मू-कश्मीर हो या पूर्वोत्तर का क्षेत्र अब शांति बनी रहती है।


खालिस्तानियों को पाकिस्तान से अपेक्षित सहयोग नहीं मिलने वाला 


पाकिस्तान ने 80 के दशक में पंजाब में भटके हुए युवाओं के कंधे पर बंदूक रखकर भारत के अंदर खालिस्तान का पासा फेंका था। 
पाकिस्तान के सीने में बांग्लादेश के बंटवारे की बात चुभ रही थी और अपने देश के दो टुकड़े होने पर खून के आंसू रो रहा था।


  बांग्लादेश का बदला लेने के लिए वह कभी पंजाब, कभी जम्मू-कश्मीर तो कभी पूर्वोत्तर में आतंक की साजिश रचता था।


 आज पाकिस्तान आर्थिक रूप से पहले से ज्यादा पीड़ित है। वह करीब 60 लाख करोड़ के  कर्ज के बोझ से दबा हुआ है। 


पाकिस्तान आसमान छूती महंगाई से लेकर राजनीतिक अस्थिरता का शिकार है। ऐसी स्थिति में वह भारत को अपना प्रतिद्वंद्वी समझते हुए कई मसलों पर बयानबाजी तो करता है लेकिन भारत से मुकाबला करने की उसमें हिम्मत नहीं होती।


 अब वह ना तो पंजाब और ना ही पूर्वोत्तर का माहौल खराब कर सकता है, यहां तक कि घाटी में भी पाकिस्तान की अब दाल नहीं गलने वाली। 


पाक अधिकृत कश्मीर की जनता खुद पाकिस्तानी हुकूमत से परेशान हैं और मदद के लिए भारत सरकार से उम्मीद रखती है।
 

जट्ट सिखों का आंदोलन 

पंजाब ऐसा प्रदेश है जहां सिखों की कुल आबादी 67 फीसदी है। लेकिन इनमें दलितों की आबादी सबसे ज्यादा है, जिसके बाद जट्ट सिख की आबादी आती है। 
पंजाब मालवा, माझा और दोआबा में बंटा हुआ है। माना जाता है, इसी आधार पर सामाजिक समीकरण और अनेक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन भी बंटे हुए हैं, जिसका वोटों की राजनीति पर भी प्रभाव पड़ता है।


 पंजाब में दलितों से कम होकर भी करीब 25 फीसदी जट्ट सिखों का दबदबा रहा है।

 


 पंजाब की सियासत में जट्ट सिख का विशेष प्रभुत्व रहा है और यही वजह है कि 80 के दशक में जब खालिस्तान की मांग ने अपना सिर उठाया था, तब उसमें जट्ट सिखों का समर्थन दिखा था।


 लेकिन, पिछले कुछ सालों में पंजाब में जातीय विभिन्नता बढ़ी है, दलितों को मुख्यधारा की राजनीति में लाया गया और हिंदुओं की बढ़ती आबादी भी यहां की ताकत बन गई।


 ऐसे में खालिस्तान का आंदोलन एक प्रकार से जट्ट सिख का आंदोलन बनकर रह गया। इस मुद्दे पर उसे बाकी समुदाय का ना कभी समर्थन मिला और ना ही मिल सकता है।